Monday 22 January 2018

Rani Padmavati to Padmavat - I am hurt !

रानी पद्मावती से पद्मावत – मैं आहत हूँ !


पद्मावती कोई कपोल-कल्पना नहीं है, एक उपन्यास की निर्जीव पात्र नहीं है जिस पर कोई कुछ भी लिख दे या कह दे | पद्मावती हमारे इतिहास का एक गौरवमयी पृष्ठ है,  भारत का आदर्श है, उसके त्याग और साहस की पराकाष्ठा है, हमारी प्रेरणा का स्त्रोत है !

पद्मावती हमारी पूर्वज हैं, हमारी माता हैं, हमारा आदर्श हैं, हमारी शक्ति का स्त्रोत हैं |

कोई भी व्यक्ति केवल देह नहीं होता, वह एक आदर्श होता है, एक विचार होता है, जिसे वह अपने जीवन से व्यक्त करता है | व्यक्ति की देह नश्वर है, परन्तु उसका आदर्श और उसके विचार उसकी मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहते हैं इसी कारण उसके जाने के बाद भी हम उसे स्मरण करते हैं | और यदि किसी व्यक्ति का आदर्श उसके समाज के लिए गर्व का विषय हो तो समाज उसे अंगीकार कर लेता है, वह चिरजीवी हो जाता है | फिर हर वर्ष हम उसकी जयंती मनाते है | पद्मावती केवल एक देह नहीं जो मिट्टी में विलीन हो चुकी है, वह एक आदर्श है जो आज भी जीवत है, क्योंकि उसके आदर्श में समाज आज भी अपना आदर्श देखता है |

खिलजी के कारण पद्मावती और उनकी सहयोगी वीरान्गनाओं ने जब जौहर किया तब केवल उनके शरीर का अन्त हुआ था पर परन्तु उस जौहर-अग्नि से जिस आदर्श ने जन्म लिया वह सदा के लिए अमर हो गया | आज उस इतिहास को पलट कर अथवा उसका उपहास कर भंसाली ने खिलजी से भी अति गंभीर अपराध किया है | खिलजी ने पद्मावती का केवल शरीर छीना था परन्तु भंसाली उनके आदर्श की ह्त्या कर रहा है |

और यह केवल पद्मावती के आदर्श, और उसके विचार की ह्त्या नहीं है यह हमारे आदर्शों की ह्त्या है | यह हमारी माँ का अपमान हैं, हम इसे कैसे सह सकते हैं | यह हमारे देश का अपमान है | यह हमारी अस्मिता की ह्त्या है | यह हमारी संस्कृति और हमारी प्रेरणा की ह्त्या है, जिसका मूल्य हमारे प्राणों से कई गुना अधिक है | यह घोर अपराध हम सबके वध से भी कहीं अधिक गंभीर है | हम यह नहीं सह सकते, चाहे इसके लिए हमें अपनी आहूति ही क्यों न देनी पड़े |

यह कौन सा न्याय है जिसमें मानवीय मूल्यों, आदर्शों और प्रेरणा स्त्रोतों की कोई गणना नहीं है | जिसमें इतिहास का कोई महत्व नहीं है | जिसमें हमारी अस्मिता का भी कोई महत्त्व नहीं है | ऐसा लगता है भौतिक्तावाद की आंधी में हमारा न्याय भी दिक्भ्रमित हो गया है ? क्या एक व्यक्ति की सनक और पैसों की भूख को अभिव्यक्ति की आजादी का नाम देकर लाखों लोगों की आस्था का वध न्यायसंगत होगा? आज न्यायलय को अपने न्याय की अवधारण पर एक बार पुन: विचार करना होगा |

एक तर्क और दिया जा रहा है कि चलचित्र में जो कुछ भी है भी वह शोध पर आधारित है | यह भी कितना खोखला आधार है |
1)  इतिहास को कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि समय के साथ उसके प्रमाण समाप्त हो जाते हैं |

2)  इतिहास लिखने वाला सदा अपनी भावनाओं और श्रद्धा से उसे रंग देता है | उदाहरण के लिए महाराणा प्रताप और अकबर के हल्दी-घाटी के युद्ध में एक वर्ग यह मानता है कि महाराणा की विजय हुई थी, दूसरा यह कि अकबर की विजय हुई थी और एक तीसरा वर्ग भी है जो कहता है कि युद्ध अनिर्णीत रहा | यह तीनों ही निष्कर्ष अपनी जगह हैं और सत्य कभी उजागर नहीं होगा |

3)  श्रीकृष्ण से सम्बंधित द्वारिका, मथुरा, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र, महाभारत और गीता इत्यादि आज भी विद्यमान हैं परन्तु फिर भी एक वर्ग है जो श्रीकृष्ण को केवल कवि की कल्पना मानता है |

4)  श्रीराम से सम्बंधित अयोध्या, चित्रकूट, लंका, रामसेतू, रमायण इत्यादि आज भी विद्यमान हैं परन्तु फिर भी एक वर्ग है जो इन्हें श्रीराम को भी कवि की कल्पना मानता है |

5)  राम-सेतू को जिसे प्राकृतिक संरचना मान कर नकारा जा रहा था आज नासा ने उसे मानवीय कृति घोषित कर दिया है | तो क्या कुछ वर्ष पूर्व जो लोग श्रीराम को कवि की कल्पना मानते थे, उनके विचार बदल गए ? ऐसा नहीं है क्योंकि वह कोई और तर्क ढूँढ़ लेंगे, उस निष्कर्ष को सिद्ध करने के लिए जिसे वह पाहिले ही मान चुके हैं | तर्कों से कुछ सिद्ध नहीं होता वह केवल अपने मन के द्वन्द को शान्त करने का उपाय है | जिसे जो ठीक लगता है उसी के अनुरूप तर्क चुन लेता है | 


भारत का इतिहास अति प्राचीन है | तब आज जैसे पन्ने नहीं होते थे और न ही इतिहास को ज्यों का त्यों रखने की तकनीकी थी | तब भारत में इतिहास काव्यों में और लोक-कथाओं में संजो कर रखा जाता था | इन कथाओं के अलग अलग रचयिता अलग-अलग प्रकार से इतिहास को कहते थे | पश्चिम देशों के विपरीत भारत इतिहास की घटनाओं और उनके विवरण को नहीं अपितु उसकी भावनाओं, आदर्शों और संदेशों को संजो कर रखता था | जो न केवल समाज के मोरंजन का साधन था अपितु उसके जीवन में अभीष्ट आदर्शों का निर्माण करता था और उसमें एकता का भाव पैदा करता था | उदाहरण के लिए रामचरितमानस न केवल जन-जन का मनोरंजन करती है उनमें उच्च आदर्शों का भी सृजन करती है | 

इतिहास के इस उद्देश्य को समझ कर आज के काल में भी इतिहास को एक दूसरे रूप में लिखा जा सकता है | परन्तु यदि उसकी मूल भावना को आहत अथवा नष्ट किया जाता है तो उसे स्वीकार नही किया जाना चाहिए | उदाहरण के लिए महाराणा प्रताप और अकबर के युद्ध से कोई यह निष्कर्ष निकालने का प्रयास करे की महाराणा युद्ध से घबरा कर मैदान छोड़ कर भाग गए, तो यह कभी स्वीकार नहीं हो सकता | यह महराणा प्रताप और देश का अपमान होगा | इसलिए जब तक अकाट्य प्रमाण न हों इतिहास से छेड़-छाड़ नहीं होनी चाहिए | और यदि हमें किसी प्रकरण की पुनर्कल्पना ही करनी है तो वह इस प्रकार की जाए कि उसके आदशों की ह्त्या अथवा अपमान न हो; और उसे और अधिक उन्नत आदर्शों से महिमा मंडित किया जाए | जिससे वह समाज को एक न केवल दिशा दे सके अपितु उसके उत्थान में भी सहायक हो |  

कुछ प्रश्न भंसाली जी पर भी उठते हैं –
1) क्या भंसाली अपनी माता, बहिन अथवा अपने पूर्वजों पर किसी भी प्रकार की फिल्म बनाने की अनुमति देंगे ?

2) क्या उनके पास और कोई कहानी नहीं हैं जो वह इतिहास को दूषित करना चाहते हैं ?

3) क्या उनमें यह सामर्थ्य नहीं कि वह विवाद खड़ा किए बिना अपनी फिल्म दर्शकों को बेच सकें ?

4) क्या उनके लिए धन के सामने आदर्शों, मान-अपमान, प्रेरणाओं का कोई अर्थ नहीं है ?

5) क्या वे इतने अक्षम और निर्धन हैं कि देश की संकृति को बेच कर धन कमाना चाह रहे हैं ?

6) क्या एक व्यापारी इतना गिर गया है कि वह पैसे के लिए देश का इतिहास बेच रहा है ?


किसी एक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर यह अधिकार कौन देता है कि वह देश के आदर्शों का अपमान करे, वह भी कुछ चाँद रुपयों के लिए |   

क्या यह संभव है कि
1) भंसाली जी को इस फिल्म की लागत दे कर उनसे इस फिल्म को खरीद लिया जाए और फिर उसे प्रदर्शन से रोक लिया जाए?

2) या फिर राष्ट्रपति के समक्ष इसे रोकने का आवेदन किया जाए?

3) या फिर माननीय न्यायलय, सेंसर-बोर्ड और कुछ प्रबुद्ध लोग उसे देख कर देश को यह विश्वास दिलाएं कि यह फिल्म देश के आदर्शों को आहत नहीं करती ? क्यों नहीं न्यायलय कुछ दिन और रुक सकता | यदि सभी पक्षों को सुन लिया जाए और उसमें कुछ माह लग भी जाएं तो भंसाली जी की क्या हानि हो जाएगी | क्या यह मामला केवल किसी के व्यापार का है, व्यापार में लाभ-हानि का है ? यह प्रकरण इतना छोटा नहीं है जितना इसे आंका जा रहा है, यह देश के सम्मान का विषय है|


मैं आहत हूँ | देश की रक्षा का अर्थ केवल उसकी सीमाओं की रक्षा ही नहीं है जिसके लिए हर वर्ष हजारों वीर प्राणों का बलिदान करते हैं | देश की रक्षा का अर्थ यह भी है कि उसके सम्मान और आदर्शों की भी रक्षा की जाए | 

कहीं भारत माता एक और 'जौहर' का आवाहन तो नहीं कर रहीं ? 

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