Monday 10 September 2018

True Aim of Life-2 (Hindi)

जीवन का सच्चा लक्ष्य

लक्ष्यहीन जीवन सागर की सतह पर तैरती उस नाव के समान होता है जिसका कोई मांझी नहीं होता; जिसकी न तो कोई अपनी गति होती है और न ही कोई अपनी दिशा | ऐसा जीवन उस नाव के समान होता है जो पवन के झोंकों और लहरों के थपेड़ों से इधर से उधर भटकती रहती है और अंतत: काल के महासागर में डूब जाती है|(1a)

सार्थक और सफल जीवन के लिए हमारे जीवन का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए|(1b) जीवन का लक्ष्य न केवल हमारे जीवन को दिशा प्रदान करता है अपितु उसे सार्थकता और महानता भी प्रदान करता है | हमारा लक्ष्य जितना ऊंचा होगा हमारा जीवन भी उतना ही भव्य और गौरवशाली होगा |(1c)

परंतु हम अपने जीवन के लक्ष्य का चुनाव कैसे करें ?


भौतिकवाद पर आधारित जीवन का लक्ष्य:

भौतिकवाद पर आस्था रखने वाला मनुष्य अपने को शेष सभी जीवों से अलग मानता है | वह अपनी सत्ता के विस्तार को केवल अपनी देह, प्राण और मन की उन सीमाओं तक ही सीमित मानता है जिनके प्रति वह सचेतन है |

वह नहीं जानता कि वह अखिल ब्रह्मांड का एक अभिन्न अंश है| अत: वह अपनी सीमित सत्ता में संतुष्ट रहते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए लगा देता है| अपने चारों ओर उपस्थित मनुष्यों से अपने को भिन्न मानते हुए वह उनसे प्रतिस्पर्धा करता है| उसके जीवन की सफलता का केवल एक मापदंड होता है कि उसका और उसके परिवार का जीवन कितने सुख से बीत रहा है और वह अपने सम्बन्धियों, मित्रों और साथी मनुष्यों की अपेक्षा कितना समृद्ध, सशक्त और सम्माननीय है |

आज जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तो पाते हैं कि लगभग सभी मनुष्यों का केवल यही एक लक्ष्य होता है| यदि हम तटस्थ भाव से चिंतन करें तो समझ आएगा कि यह सर्वमान्य लक्ष्य कितना खोखला है|
  • मृत्यु पर विजय पाने की अपेक्षा मृत्यु से पराजय स्वीकार कर हमने मृत्यु को अपनी नियति मान लिया है| जब कि गीता मनुष्य की अमरता की घोषणा करती है –अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो ...”(2) ]
  • पुनर्जन्म के समर्थन में प्रमाणों के अभाव को हमने साक्ष्य मान लिया है; प्रयासों से थक कर संदेह को सत्य मान लिया है और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नकार दिया है| जब कि गीता स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म की घोषणा करती है – देहिनोऽस्मिन्यथा देहे ….”(3) ]
  • हृदय में स्थित अपनी आत्मा और उसकी अमरता (2), सार्वभौमिकता और एकात्मता के प्रति अनजान हमने अपनी सत्ता के अत्याधिक छोटे और प्रत्यक्ष अंश को अपना विस्तार मान लिया है | [ जब कि उपनिषद् घोषणा करते हैं – अहम् ब्रह्मास्मि”|(7) ]

ये मान्यताएँ न तो तर्क-संगत हैं और न ही किसी वैज्ञानिक विश्लेषण का निष्कर्ष| ये हमारी अज्ञानता और दुर्बलता का परिचायक हैं | फिरभी इन मान्यताओं को आधार मान कर जन्म प्रति जन्म परम-सत्य की ओर आरोहण के महान लक्ष्य की अपेक्षा अपनी सीमित और नश्वर भौतिक सत्ता की रक्षा और इस जीवन के सुखपूर्ण व्यय को ही हमने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ ध्येय मान लिया है|

कहीं अज्ञानवश हम अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ ही तो नहीं गवां रहे हैं |

आत्मज्ञान पर आधारित जीवन का सच्चा लक्ष्य:

जब तक मनुष्य यह नहीं जान लेता कि (१) सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे भगवान् का क्या उद्देश्य है, (२) युगों-युगों से प्रकृति के घोर श्रम के पश्चात् मनुष्य के जन्म का क्या रहस्य है और (३) आदि काल से चल रहे इस यज्ञ में मनुष्य से किस आहुति की अपेक्षा की जा रही है, तब तक मनुष्य जीवन के लिए कोई भी लक्ष्य निर्धारित करना अर्थहीन है|

सर्वप्रथम हमें इन प्रश्नों का हल खोजना होगा| ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य के पास जो साधन सुलभ हैं, वे हैं - उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ, तर्क-शक्ति और विज्ञान | ये साधन हमें आंशिक प्रकाश तो देते हैं, अंधकार को कुछ कम कर देते हैं, कुछ दूर तक हमारे पथ को प्रकाशित भी करते हैं परंतु ये हमारे गूढ प्रश्नों का समाधान करने में असमर्थ हैं क्योंकि ये प्रश्न ज्ञान के इन साधनों की पहुँच से परे हैं| अत: अपनी समस्या का हल हमें कहीं और खोजना होगा !
  “ प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते |
    एनं विदंति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ||” (4)   
(अर्थ: = प्रत्यक्ष अर्थात् पर्यवेक्षण या अवलोकन द्वारा और अनुमान अर्थात् विश्लेषण या विवेचन द्वारा जिस तत्व का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता, उसका ज्ञान वेदों द्वारा प्राप्त होता है| यही वेदों का वेदत्व है|)

अर्थात् हमें वेद और शास्त्रों की ओर मुड़ना होगा; वे ही हमारी समस्या का निदान कर सकते हैं| इसके अतिरिक्त समय-समय पर अनेक ऋषियों और महात्माओं ने भी हमारा मार्गदर्शन किया है| परंतु यह गुह्य ज्ञान न तो अवलोकन से और न ही विवेचन से प्राप्त हो सकता है | इसके लिए आरम्भ में हमें विश्वास करना होता है, परन्तु अंत में यह ज्ञान अनुभूति से प्राप्त होता है |

अब हम उपरोक्त प्रश्नों की ओर लौट चलते हैं | इस सृष्टि का उद्देश्य अथवा भगवत् संकल्प क्या है ? वेद के अनुसार सृष्टि का उद्देश्य है इस धरा पर भगवान् द्वारा अपने आप को अनेक रूपों में प्रकट करना| दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य में भगवान् को प्रकट करना| अर्थात् -
“ एकोऽहम् बहुस्याम|”

सावित्री(5) के अनुसार सृष्टि का उद्देश्य है -
“ Nature shall live to manifest secret God,
   The Spirit shall take up the human play,
   This earthly life become the life divine.(6)
अर्थात् इस धरा पर दिव्य-जीवन को अभिव्यक्त करना |

एक और सत्य जो हमारे सामने बार-बार रखा गया है, वह है कि मनुष्य स्वयम् भगवान् है | उपनिषदों में इस सत्य को प्रकार कहा गया है -
“ अहम् ब्रह्मास्मि| तत् त्वमसि| अयमात्मा ब्रह्म|”(7)

गीता में इसी सत्य को एक अलग प्रकार से कहा गया है -
  “ ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ” (8)  
 अर्थात् ईश्वर सभी जीवों के हृदय में विराजमान है| 

स्वामी विवेकानन्द ने इसे इस प्रकार कहा है, “एक शब्द में कहें तो तुम ही परमात्मा हो |


परन्तु मनुष्य जो वस्तुत: स्वयम् ब्रह्म है और प्रकृति का स्वामी है, अज्ञानवश उसका दास बन कर जी रहा हैवह अमर है परन्तु मृत्यु के जाल में जकड़ा हुआ है| वह ज्ञान का सूर्य है परन्तु अज्ञान के अन्धकार में भटक रहा है| वह आनन्द स्वरूप है परन्तु घोर दुःख भोग रहा है| अत: अज्ञान, मृत्यु और दु:ख पर विजय प्राप्त करना, अर्थात् अपने सत्य को प्राप्त करना ही उसके जीवन का एकमात्र और तर्क-संगत लक्ष्य है|
   “ असतो मा सद्गमयतमसो मा ज्योतिर्गमयमृत्योर्मा अमृतं गमय|”(9)

‘सावित्री’ के शब्दों में - 
“ His nature we must put on as he put ours;
   We are sons of God and must be even as he:
   His human portion, we must grow divine.” (10)
उतरोत्तर सच्चिदानंद की ओर बढ़ना और अपने अन्दर विद्यमान भगवान् को अभिव्यक्त करना ही हमारा सच्चा लक्ष्य है| यह लक्ष्य न केवल सृष्टि के उद्देश्य के अनुरुप है, शास्त्र सम्मत है, और तर्क-संगत है, यही भगवत् इच्छा है और इसलिए यही हमारा धर्म भी है|

परंतु इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमारा कर्म क्या हो, यह प्रश्न अभी भी शेष है|

सर्वोच्च कर्म:

शास्त्रों ने न केवल परम-गुह्य सत्य, अहम् ब्रह्मास्मि |”(7) की घोषणा की है अपितु इस सत्य को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के योग का विस्तार से वर्णन भी किया गया है| उनमें से सर्वश्रेष्ठ और सर्वसुगम मार्ग है - यज्ञ, त्याग अथवा समर्पण का मार्ग| अर्थात् यदि हम अपने सर्वोच्च सत्य को पाना चाहते हैं तो हमें त्याग करना होगा| मानवमात्र में प्रतिष्ठित भगवान् को अपना जीवन समर्पित करना होगा, मानवजाति की सेवा करनी होगी|
                    “ न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः” (11) 
(अर्थ: न तो कर्म से, न वंश-वृद्धि से और न ही धन से, अपितु केवल त्याग द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति होती है|)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार -
# “नर सेवा ही नारायण सेवा है|”
# “दूसरे मनुष्यों की सेवा करना, लाखों जप तप के बराबर है|”
# “यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैवास्तव में वे ही जीते है ।

अज्ञानी पुरुष अपने को सबसे अलग जानता है, इसलिए वह अपने स्वार्थ के अनुरूप कर्म करता है| परंतु आत्मदर्शी सभी जीवों में परम एक को देखता है; वह “वासुदेव: सर्वं इति(12), “सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्(13) और “वसुधैव कुटुम्बकम्(14) के सत्य के अनुरूप परमार्थ के लिए कार्य करता है|

नर-सेवा का मार्ग व्यक्तिगत मुक्ति के लिए तो उपयुक्त है, परंतु व्यक्तिगत मुक्ति हमारा अंतिम उद्देश्य नहीं हो सकता| क्योंकि “आत्मा तो नित्यमुक्त है और बंधन केवल भ्रम है”|(15) व्यक्तिगत मुक्ति के अन्तरिम उद्देश्य से कहीं अधिक भव्य और महान उद्देश्य है धरा का दिव्यीकरण| यही उद्देश्य भगवत् उद्देश्य है जिसमें जन-जन की मुक्ति स्वत: ही निहित है|

धरा के दिव्यीकरण का जो मार्ग है प्रकृति ने चुना है वह है पृथ्वी का उत्तरोत्तर विकास| और पृथ्वी की विकास यात्रा में भारत के लिए जो स्थान प्रकृति द्वारा निश्चित् किया गया है, वह है – जगत्-गुरु का स्वर्णिम सिंहासन|

भारत का भविष्य बिल्कुल स्पष्ट है| भारत संसार का गुरु है| जगत् की भावी संरचना भारत पर निर्भर है| भारत जीवित-जाग्रत आत्मा है| भारत जगत् में आध्यात्मिक ज्ञान को मूर्तमान कर रहा है |” (-श्रीअरविंद)

भारत के अस्तित्व का एकमात्र हेतु है – मानवजाति का आध्यात्मीकरण| यही उसकी जीवन-रचना का प्रतिपाध्य विषय है, यही उसके अनंत संगीत का दायित्व है, यही उसके अस्तित्व का मेरुदंड है और यही उसके जीवन की आधारशिला है | (-स्वामी विवेकानंद) (16)  

परंतु भारत आज अनेक समस्याओं से जूझ रहा है – चारों ओर अराजकता, भ्रष्टाचार, गरीबी और अज्ञान का बोल-बाला है| भौतिकवाद और उससे उत्पन्न भोगवाद हमारे पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों को छिन्न-भिन्न कर रहा है| दूसरी ओर विदेशी ताकतें देश को कमजोर करने और तोड़ने के लिए निरंतर सक्रिय हैं| भारत भगवान् द्वारा निर्दिष्ट अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण करने में न केवल असमर्थ जान पड़ता है अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि वह उसे लगभग पूर्णतय: भूल चूका है| ऐसे समय में भारत के आध्यात्मिक ज्ञान की रक्षा और उसकी पुनर्स्थापना ही परमोच्च कार्य है| भारत का पुनर्जागरण और उत्थान भगवत् इच्छा है और भगवत् योजना के अनुरूप है, इसलिए यही हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी| स्वामी विवेकानन्द ने अनुसार,राम राम करने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता । जो प्रभु की इच्छानुसार काम करता है वही धार्मिक है|”

भारत के युवकों से यही अपेक्षित है – स्वयम् की उन्नति और मुक्ति(17) के साथ-साथ देश का उत्थान और मानवजाति का कल्याण| इस कार्य को करने के लिए -
  • हमें देह, प्राण और मन से शक्तिशाली बनना होगा|
  • भारत से सम्बन्धित सभी प्रकार का ज्ञान अर्जित करना होगा; इतिहास, दर्शन, सामाजिक संरचना, वेद, उपनिषद्, गीता, नृत्य, संगीत, आयुर्वेदअर्थशास्त्र इत्यादि का गूढ़ अध्ययन करना होगा |
  • भारत की अवधारणा और उसके उद्देश्य को जानना होगा |
  • भारत की वर्तमान समस्याओं को जानना होगा और उसकी उन्नति और समृद्धि के लिए कार्य करना होगा|
अत: गीता में उद्धृत सत्य “वासुदेव: सर्वं इति”(12) और धरा के दिव्यीकरण (6) के भगवत् संकल्प पर श्रद्धा रखते हुए तथा नर में नारायण के दर्शन (8) करते हुए हमें भारत के उत्थान के लिए आत्मोसर्ग करना होगा | आत्म-समर्पण का यह मार्ग न केवल हमारे समाज और देश की उन्नति के लिए उपयुक्त है अपितु मोक्ष एवं भगवत् प्राप्ति के हमारे व्यक्तिगत लक्ष्य को प्राप्त करने का भी सर्वाधिक तीव्र और सर्वाधिक सुगम मार्ग है | यही कार्य सम्पूर्ण जगत के लिए भी सर्वाधिक कल्याणकारी है | यही कर्म धरा के दिव्यीकरण के भगवत् संकल्प के अनुरूप है | यही कर्म सभी कर्मों में सर्वश्रेष्ठ कर्म है | 

- निरूपम रोहतगी

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संदर्भ सूची: 

1.    (a) “An aimless life is always a miserable life.” (b) “Every one of you should have an aim.” (c) “But do not forget that on the quality of your aim will depend the quality of your life.” - Collected Works of the Mother, Volume 12, pp.3-8.
2.  “न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायम् भूत्वा भविता वा न भूय: | अजो नित्य: शाश्वतोऽयम् पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे || गीता-2/20.
3.  “देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा | तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ||”, गीता-2/13,
4.  आचार्य सायण, कृष्ण यजुर्वेद, तैत्तिरीय सहिंता (उपोद्घात),
5.  ‘Savitri – A Legend and a Symbol’, Sri Aurobindo.
6.  Savitri, p. 710,
7.  बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१०, छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७, माण्डूक्य उपनिषद १/२,
8.  ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति | भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया || गीता-18/61,
9.  बृहदारण्यक उपनिषद् (१.३.२८),
10.  Savitri, p. 67,
11.  कैवल्योपनिषद् (१.३),
12.  बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्यते | वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: || गीता-7/19.
13.  छान्दोग्य उपनिषद् (३/१४/१).
14.  महोपनिषद् (४.७१).
15.  हमारा योग और उसके उद्देश्य’, श्रीअरविंद, 6 संस्करण २०१५, पृ०१,
16.  स्वामी विवेकानन्द साहित्य (दस खण्ड), अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, (९, ३००)
17.  मुक्ति का अर्थ मृत्यु लोक से पलायन कर किसी स्वर्ग में रमण करना नहीं है | मुक्ति का सही अर्थ है दु:ख से भरे इस लोक में रहते हुए त्रिगुणी प्रकृति के पाश से मुक्त होना, अपनी आत्मा को जानना और अपनी सत्ता में आत्मा का शासन स्थापित करना है |



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