Wednesday 21 March 2018

To Live for Nation is to Live for Oneself

देश की लिए जीना ही अपने लिए जीना है  - परमार्थ ही स्वार्थ है | नर सेवा - नारायण सेवा | 


सफलता के वर्तमान मापदंड:

  • भौतिकता की चमक से हतप्रभ और उच्च आदर्शों के अभाव में मनुष्य आज भौतिकता के समक्ष नतमस्तक हो गया है | 
  • वह अपना सम्पूर्ण जीवन अपनी कामनाओं की तुष्टि के लिए समर्पित कर देता है | और उसका सारा जीवन उसके चारों ओर उपस्थित मनुष्यों से प्रतिस्पर्धा करते हुए व्यतीत होता है |
  • उसके जीवन की सफलता का एकमात्र मापदंड यह है कि उसका और उसके परिवार का जीवन कितने सुख से बीत रहा है और सम्बन्धियों, मित्रों और साथी मनुष्यों की अपेक्षा वह कितना समृद्ध, सम्मानीय और सशक्त है |

अज्ञान पर आधारित मापदंड:

  • थोड़ा ध्यान से चिंतन करने पर हमें समझ आएगा कि हमारी सोच और मापदंड कितने छोटे और खोखले हैं |
  • मृत्यु से हार कर हमने उसे अपनी नियति मान लिया है |
  • अपनी इन्द्रियों की सीमाओं में कैद, आत्मा के प्रति अनभिज्ञ, अपनी सार्वभौमिकता और एकात्मता के प्रति अनजान हमने अपनी इस क्षुद्र देह और क्षुद्र जीवन मात्र को अपना विस्तार (पूर्ण अस्तित्व) मान लिया है | और क्षणिक देहिक और प्राणिक सुखों को ही जीवन का ध्येय, सार्थकता और सफलता मान लिया है |

आत्मज्ञान और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य:

  • वस्तुत: हम भगवान के पुत्र हैं |
          कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद "शुकरहस्योपनिषद" में इसे इस प्रकार कहा गया है -
                   अहम् ब्रह्मास्मि |
                   तत् त्वमसि |
                  अयमात्मा ब्रह्म |

      स्वामी विवेकानन्द ने इस सत्य को इस प्रकार कहा है -
   “एक शब्द में कहें तो तुम ही परमात्मा हो”
  
  • वेद, उपनिषद्, गीता इत्यादि शास्त्रों में भी इसी सत्य को घोषित किया गया है |
  • परन्तु मनुष्य जो वस्तुत: प्रकृति का स्वामी है आज उसका दास बन कर जी रहा है |   
वह अमर है परन्तु मृत्यु के पाश में जकड़ा हुआ है |
वह स्वयम् ज्ञान का सूर्य है परन्तु अज्ञान के अन्धकार में भटक रहा है |
वह आनन्द स्वरूप है परन्तु घोर दुःख भोग रहा है |
  • इस परम सत्य को प्राप्त करना, शाश्वतता, चेतना और आनंद को प्राप्त करना ही हमारा तर्क संगत धर्म है |
                    असतो मा सद्गमय | 
                    तमसो मा ज्योतिर्गमय |
                    मृत्योर्मा अमृतं गमय |
 

                                                         (बृहदारण्यक उपनिषद्)
                          
असत्य से सत्य की ओर चलें, अंधकार से प्रकाश की ओर चलें, मृत्यु से अमरता की ओर चलें - शास्त्रों के अनुसार यही हमारे जीवन वास्तविक लक्ष्य है | जाने अनजाने हम इसी लक्ष्य की ओर चलते रहते हैं |

His nature we must put on as he put ours;
We are sons of God and must be even as he:
His human portion, we must grow divine. 
(Savitri, 067/33, Sri Aurobindo)

परमार्थ ही स्वार्थ है - देश के लिए जीना हमारा धर्म भी है और स्वार्थ भी:

  • वेद, उपनिषद्, गीता इत्यादि शास्त्रों में न केवल इस परम-गुह्य सत्य की घोषिणा की है अपितु इसको प्राप्त करने के अनेकानेक मार्गों का विस्तार से वर्णन भी किया गया है |
  • उसमें से एक मार्ग है यज्ञ का मार्ग अथवा त्याग का मार्ग |
  • इसलिए यदि हम स्वार्थी हैं और हम अपने सर्वोच्च सत्य को पाना चाहते हैं तो हमें उत्सर्ग करना होगा | मानवमात्र में प्रतिष्ठित भगवान् को अपना जीवन समर्पित करना होगा | अर्थात् मानवजाति की सेवा करनी होगी |
“नर सेवा – नारायण सेवा” - स्वामी विवेकानन्द |
  • इस ज्ञान को संरक्षित रखने के लिए, और अपने सत्य को पाने के लिए भारत माता की सेवा से अधिक श्रेष्ठ कार्य और कोई नहीं है |
  • आज देश एक भयानक संकट उसे गुजर रहा है – चारों ओर अराजकता, भ्रष्टाचार, गरीबी और अज्ञानता का बोल-बाला है | विदेशी ताकतें देश को कमजोर करने और तोड़ने के लिए सदा तत्पर हैं | ऐसे समय में भारत माता की सेवा से अधिक आवश्यक और श्रेष्ठ कार्य और कोई नहीं है |
  • यही भगवान की इच्छा है, इसलिए यह हमारा धर्म भी है, और यही वह मार्ग (अर्थात् नर सेवा, समाज सेवा, भारत माता की सेवा) हमारे स्वयम् की सिद्धि के लिए सबसे अधिक उपयुक्त और सबसे अधिक सुगम है | 

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, धर्म क्या है ?  

       #  दूसरे मनुष्यों की सेवा करना, लाखों जप तप के बराबर है |
              #  राम राम करने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। जो प्रभु की इच्छानुसार काम करता है वही धार्मिक है|
              #  यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते है,                              वास्तव  में वे ही जीते है ।

भारत का उद्देश्य:

  • भारत के लिए जीने से पूर्व हमें जानना होगा कि अनेकानेक देशों के मध्य भारत का उद्देश्य क्या है, उसका क्या दायित्व है |
  • भारत का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है | भारत संसार का गुरु है | जगत् की भावी संरचना भारत पर निर्भर है | भारत जीवित-जाग्रत आत्मा है | भारत जगत् में अध्यात्मिक ज्ञान को मूर्तमान कर रहा है | (श्रीअरविंद)
  • श्रीकृष्ण के वचन, श्री अरविन्द के मुख से – “वे (हिन्दू जाति) सनातन धर्म के लिये उठ रहे हैं, वे अपने लिये नहीं बल्कि संसार के लिये उठ रहे हैं। मैं उन्हें संसार की सेवा के लिये स्वतंत्रता दे रहा हूँ । अतएव जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा | जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान् होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म महान् होगा । जब कहा जाता है कि भारतवर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा । धर्म के लिये और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है ।“ - (३० मई, १९०९, उत्तरपाड़ा भाषण, श्रीअरविंद)
  • “यह हिन्दुजाति सनातन धर्म को लेकर ही पैदा हुई है, उसी को लेकर चलती है और उसी को लेकर पनपती है । जब सनातन धर्म की हानि होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश संभव होता तो सनातन धर्म के साथ ही-साथ इस जाति का विनाश हो जाता । सनातन धर्म ही है राष्ट्रीयता ।“ - (३० मई, १९०९, उत्तरपाड़ा भाषण, श्रीअरविंद)


भारत के लिए जीने का क्या अर्थ है, कि:

  • हमें देह, प्राण और मन से शक्तिशाली बनना होगा
  • देश से सम्बन्धित सभी प्रकार का ज्ञान अर्जित करना होगा –
इतिहास, दर्शन, सामजिक संरचना, वेदों उपनिषदों, गीता, नृत्य, संगीत, आयुर्वेद,      अर्थशास्त्र इत्यादि का गूढ़ अध्ययन करना होगा |
भारतीय विचार, भारतीय चरित्र, भारतीय दृष्टि, भारतीय ऊर्जा, भारतीय महानता, को फिर से पाना और उन समस्याओं का जो सारे संसार को परेशान करती हैं, भारतीय मनीषा और भारतीय दृष्टिकोण से सुलझाना, यही हमारी दृष्टि में राष्ट्रीयता का उद्देश्य है | (श्रीअरविंद)
  • भारत की वर्तमान समस्याओं को जानना होगा और भारत के उद्देश्य को जानना होगा
  • सबसे अधिक आवश्यक है कि हम अपने इतिहास और दर्शन का अध्ययन करें | इतिहास से हमें अपने पर गर्व, विश्वास और व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त होता है और दर्शन से दिशा और भावी मार्ग की रचना का ज्ञान प्राप्त होता है |
  • भारत की अवधारणा को जानना और उसकी रक्षा करना होगा, भारत की उन्नति और समृद्धि के लिए कार्य करना होगा |
किसी राष्ट्र के इतिहास में ऐसे काल आते हैं जब भगवान् उसके आगे एक कार्य, एक लक्ष्य रखते हैं जिस पर हर वस्तु, जो अपने आप में कितनी भी उच्च और उदात्त क्यों न हो, न्यौछावर कर देनी होती है | हमारी मातृभूमि के लिए ऐसा काल आ गया है जब उसकी सेवा से बढ़ कर प्रिय और कोई वस्तु नहीं हो सकती, जब अन्य सभी वस्तुएं उसकी ओर निदेशित कर दी जाएं | यदि तुम अध्ययन करो तो उसके लिए अध्ययन करो, अपने शरीर मन और आत्मा को उसकी सेवा के लिए प्रशिक्षित करो | तुम अपनी आजीविका कमाओ ताकि तुम उसके लिए जी सको | तुम विदेशों में जाओ ताकि वहां से ऐसा ज्ञान लेकर लौट सको जिससे तुम उसकी सेवा कर सको | काम इसलिए करो कि वह समृद्ध हो सके | कष्ट झेलो ताकि वह प्रसन्न हो सके |  (श्रीअरविंद, १५ अगस्त, १९४७ को देशवासियों के नाम दिए गए सन्देश से)

और यदि यही कार्य हम निस्वार्थ, त्याग और समता भाव से कर सकें तो न केवल इससे देश की उन्नति हो सकेगी अपितु हम अपने जीवन को भी सफल कर सकेंगे |  

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